Thursday 16 August 2018

नसीब...

आंखों से अचानक ओझल हुए जो तुम...
पल भर के लिए सांसे मेरी गई थम...

खुशियों के खज़ाने जो मिले थे बरसो बाद..
लुट गई पलक झपकते
और
फिर एकबार कर गई मेरी आंखें नम!!

Feeling...

This day...this time was Mine..
Not until the chiming clock struck nine..
Arms in arms..lips 'gainst lips..
Rollin' on the bed..flips over flips..

Maybe 'twas the skin..
Or somethin' akin..
Oh 'twas surreal..
Just too good to be real..

Shuttin' the eyes..Amazing it felt..
Lifting her..as she knelt..
In my lap she was..crouched as a baby..
Futuristic one..or so I assumed maybe!!!

Time had to stop and play along..
Stretch each sec for an unending prolong..
For 'twas special and had to last..
Even after the relationship had breathed it's last!!

तारीफ़...

एक शाम जब बैठे अंधेरे में..
स्याह रातों के अपने सवेरे में..
एक नर्म हवा सेहला सी गई..
क्यूं लगा तुम बेहला सी गई..

तुम्हारे गर्म होंठों की छुअन से..
वो नशीली खुशबू तुम्हरे बदन से..
रूह मेरी मानो थर्रा सी गई..
प्यार अपना जैसे बरसा सी गई..

Breathe...

Expanding my lungs as I gasped..
A fresh chunk of air to inhale at last..
Alas!! To breathe became such a tough ask..
For suddenly..
Every second of puff seemed to be so vast..

भोला...

बारिश की वो मीठी बूंदे...जब होंठों से..जा लिपटी थी..
आज़ाद हुएे कुछ ख्वाहिश मेरे...जो अबतक तन से चिपटी थी..
मूंद के आंखें जब मैंने..उसके गालों को टटोला था..
स्पर्श की गर्मी आह सी भर गई..क्या इतने दिनों तक मैं भोला था?

Monday 16 April 2018

कर्म...

जीवन रूपी रणभूमि में..क्या मैं घुटने टेक अाऊं..
धर कटा के अपना..शीश झुकाकर..
क्या रंग हार का लेप अाऊं..
या उठा खड्ग मैं इन हाथों में..
दिखला दूं क्या इस दुनिया को..
दुष्कर्म से परिपूर्ण ये श्रृष्टि..
फिर..
एकबार इन्हें क्या चेत अाऊं..
जीवन रूपी रणभूमि में..क्या मैं घुटने टेक अाऊं..

सच...

अक्स जो मेरी मेरे पीछे..भागी भागी आती है..
सुख दुख है ये रीत जीवन की..
परछाई एहसास दिलाती है..
ना छूटे रिश्ता इससे कभी..
साथ है इसका उम्र भर का..
ठुकरा दो या प्यार करो..
करवा सच है ये जीवन का..